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रामधारी सिंह दिनकर


एक विलुप्त कविता | एक पत्र | शक्ति और क्षमा | रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद


एक विलुप्त कविता

बरसों बाद मिले तुम हमको आओ जरा बिचारें, आज क्या है कि देख कौम को गम है।

कौम-कौम का शोर मचा है, किन्तु कहो असल में कौन मर्द है जिसे कौम की सच्ची लगी लगन है?

भूखे, अपढ़, नग्न बच्चे क्या नहीं तुम्हारे घर में?
कहता धनी कुबेर किन्तु क्या आती तुम्हें शरम है?

आग लगे उस धन में जो दुखियों के काम न आए, लाख लानत जिनका, फटता नही मरम है।

दुह-दुह कर जाति गाय की निजतन धन तुम पा लो दो बूँद आँसू न उनको यह भी कोई धरम है?

देख रही है राह कौम अपने वैभव वालों की मगर फिकर क्या, उन्हें सोच तो अपन ही हरदम है?

हँसते हैं सब लोग जिन्हें गैरत हो वे सरमायें यह महफ़िल कहने वालों को बड़ा भारी विभ्रम है।

सेवा व्रत शूल का पथ है गद्दी नहीं कुसुम की !
घर बैठो चुपचाप नहीं जो इस पर चलने का दम है।


- रामधारी सिंह दिनकर