...if true love breaks as easily as a delusion, on what can we rely? What will people pin their hopes on?" [Nilima]
Chondromookhi says she loves me. I don’t want it, don’t want it. All the world’s a stage, people put on masks, they become thieves, beggars, kings, queens – they make love, they speak loving words, they weep, as though it was all real. Chondromookhi acts in a play – and I watch, but the one I remember – how everything changed in a moment! Where did she go, and where did I end? Now I must play act the rest of my life! A drunk! and this one – what of her? Well, what of her! No hope – no happiness – no end. Bravo! the play ends – Bravo!
Even today, regardless of the quarrels women may pick in the cause of emancipation, the reality is that, in the present world order, it's the men who eventually grant emancipation, not we women. ... it's the masters who freed the slave of the world, people belonging to the masterclass who fought for the cause. The slaves didn't earn their freedom by wrangling or arguing. That's the way things are. It's the law of the world: the strong emancipate the weak from the bondage of the strong. So also, men alone can liberate women. The responsibility lies with them.
Only the one who loves you, knows how strong is the power of your attraction
she had devoted herself to building up the fortunes of relative strangers, assuming them to be her own, while Devdas, her beloved Devdas, truly her own, was disintegrating.
When men speak of love, when they profess it in so many ways, we listen. Even when we do not love, we are loath to hurt you, even when we are disgusted, we hide our aversion, we do not say bluntly We do not love you. Instead, we often put on a very good show of loving, and if at some point, the mask slips, the men cry out You have betrayed me! and everyone listens, everyone sympathizes.
उसकी आंखों के आगे ऐसा अन्धकार छा गया जैसे तेज बिजली के चमक जाने से आंखें चौंधिया गई हों
औरतों के हृदय की कमजोरी, लज्जा तथा शील के लिए उसने विधाता को बारंबार धन्यवाद
कठिन है। स्वयं तुम भी
केंचुल से तो खेला जा सकता है, लेकिन जमींदार के लड़के के लिए भी जीवित विषधर खेलने की चीज नहीं
गिरींद्र बाबू की भाँति सत्य पुरुष होना कठिन है। जब मैंने उनसे अपनी बातें बताईं तो उन्होंने मेरे कहने पर विश्वास कर लिया। उन्होंने समझ लिया कि मैं ‘परिणीता’ हूँ। मेरे पतिदेव इस संसार में मौजूद अवश्य हैं, पर मुझे अपनाएँ या न अपनाएँ, यह उनकी अपनी इच्छा है।
नशेबाज सब कुछ सहन कर सकता है, लेकिन अपनी बुद्धि भ्रष्ट हो जाने की बात सहन नहीं कर सकता
पति की जीवित हालत में उन्होंने बिना किसी भय के पच्चीस वर्ष तक अकेले घर-गृहस्थी की है, उसकी मृत्यु तो किसी तरह सही जा सकती है, पर उसका मृत शरीर इस अंधकारपूर्ण रात्रि में पाँच मिनट के लिए भी उनसे बरदाश्त नहीं होगा। छाती अगर किसी बात से फटती है तो वह अपने मृत पति के पास अकेले बैठे रहने से!
पाप छिपाने से और बढ़ता है।
पूरी तरह याद बनी हुई है; तथा इस आदर्श हिन्दू समाज के सूक्ष्माति-सूक्ष्म जाति-भेद के विरुद्ध एक विद्रोह का भाव आज भी मेरे मन से नहीं जाता। सम्भव है, यह जाति-भेद का सिद्धान्त बहुत ही अच्छा हो; जब कि इसी उपाय से सनातन हिन्दू जाति आज तक बची हुई है, तब इसकी प्रचण्ड उपकारिता के सम्बन्ध संशय करने के लिए या प्रश्न करने के लिए और कुछ शेष नहीं रहता। कहीं कोई
पोंछकर आई थी, लेकिन उनका रुंधा गला छिपा न रह
बर्छे से बेधकर मारा जाने वाला नाग बार-बार बर्छे को ही डसता है और थक कर उसी की ओर देखता रह जाता है
भाटे के खिंचाव में पानी जैसे पल-पल अपने क्षय के चिह्नों को तट प्रदेश में अंकित करके धीरे- धीरे दूर होता चला जाता है
ललिता ज्योंही पास आकर बैठी त्योंही गुरुचरण उसके सिर पर हाथ रखकर कह उठे-अपने गरीब दुखिया मामा के घर आकर तुझे दिन-रात मेहनत करनी पड़ती है, क्यों न वेटी? ललिता ने सिर हिलाकर कहा- दिन-रात मेहनत क्यों करनी पडती है मामा? सभी काम करते हैं, मैं भी करती हूँ।- अबकी गुरुचरण हँसे। उन्होंने चाय पीते-पीते कहा-हां ललिता, तो फिर आज रसोई वगैरह का क्या इंतजाम होगा? ललिता ने मामा की ओर देखकर कहा- क्यों मामा, मैं रसोई बनाऊँगी। गुरुचरण ने विस्मय प्रकट करते हुए कहा- तू क्या करेगी बेटी, तू क्या रसोई बनाना जानती है?
शान्त, मौन पृथ्वी के अन्तःस्थल में कैसी आग धधकती है
स्त्री जाति लज्जा और संकोच की मूर्ति है, इस प्रकार की बातों को वह कभी दूसरों पर नहीं प्रकट करती। नारी की छाती फटकर टुकड़े-टुकड़े क्यों न हो जाए, पर उसकी जुबान नहीं हिलती।
हृदय में घृणा भर जाने पर मनुष्य मनचाहा काम करने का अधिकारी होता है।
me to be happy, would never give me away to a thoughtless, restless, devil-driven creature like you! Now let me go!.