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Quotes By Author - Sarat Chandra Chattopadhyay

...if true love breaks as easily as a delusion, on what can we rely? What will people pin their hopes on?" [Nilima]

Sarat Chandra Chattopadhya

Chondromookhi says she loves me. I don’t want it, don’t want it. All the world’s a stage, people put on masks, they become thieves, beggars, kings, queens – they make love, they speak loving words, they weep, as though it was all real. Chondromookhi acts in a play – and I watch, but the one I remember – how everything changed in a moment! Where did she go, and where did I end? Now I must play act the rest of my life! A drunk! and this one – what of her? Well, what of her! No hope – no happiness – no end. Bravo! the play ends – Bravo!

Sarat Chandra Chattopadhya

Even today, regardless of the quarrels women may pick in the cause of emancipation, the reality is that, in the present world order, it's the men who eventually grant emancipation, not we women. ... it's the masters who freed the slave of the world, people belonging to the masterclass who fought for the cause. The slaves didn't earn their freedom by wrangling or arguing. That's the way things are. It's the law of the world: the strong emancipate the weak from the bondage of the strong. So also, men alone can liberate women. The responsibility lies with them.

Sarat Chandra Chattopadhya

Only the one who loves you, knows how strong is the power of your attraction

Sarat Chandra Chattopadhya

she had devoted herself to building up the fortunes of relative strangers, assuming them to be her own, while Devdas, her beloved Devdas, truly her own, was disintegrating.

Sarat Chandra Chattopadhya

When men speak of love, when they profess it in so many ways, we listen. Even when we do not love, we are loath to hurt you, even when we are disgusted, we hide our aversion, we do not say bluntly We do not love you. Instead, we often put on a very good show of loving, and if at some point, the mask slips, the men cry out You have betrayed me! and everyone listens, everyone sympathizes.

Sarat Chandra Chattopadhya

उसकी आंखों के आगे ऐसा अन्धकार छा गया जैसे तेज बिजली के चमक जाने से आंखें चौंधिया गई हों

Sarat Chandra Chattopadhya

औरतों के हृदय की कमजोरी, लज्जा तथा शील के लिए उसने विधाता को बारंबार धन्यवाद

Sarat Chandra Chattopadhya

कठिन है। स्वयं तुम भी

Sarat Chandra Chattopadhya

केंचुल से तो खेला जा सकता है, लेकिन जमींदार के लड़के के लिए भी जीवित विषधर खेलने की चीज नहीं

Sarat Chandra Chattopadhya

गिरींद्र बाबू की भाँति सत्य पुरुष होना कठिन है। जब मैंने उनसे अपनी बातें बताईं तो उन्होंने मेरे कहने पर विश्वास कर लिया। उन्होंने समझ लिया कि मैं ‘परिणीता’ हूँ। मेरे पतिदेव इस संसार में मौजूद अवश्य हैं, पर मुझे अपनाएँ या न अपनाएँ, यह उनकी अपनी इच्छा है।

Sarat Chandra Chattopadhya

नशेबाज सब कुछ सहन कर सकता है, लेकिन अपनी बुद्धि भ्रष्ट हो जाने की बात सहन नहीं कर सकता

Sarat Chandra Chattopadhya

पति की जीवित हालत में उन्होंने बिना किसी भय के पच्चीस वर्ष तक अकेले घर-गृहस्थी की है, उसकी मृत्यु तो किसी तरह सही जा सकती है, पर उसका मृत शरीर इस अंधकारपूर्ण रात्रि में पाँच मिनट के लिए भी उनसे बरदाश्त नहीं होगा। छाती अगर किसी बात से फटती है तो वह अपने मृत पति के पास अकेले बैठे रहने से!

Sarat Chandra Chattopadhya

पाप छिपाने से और बढ़ता है।

Sarat Chandra Chattopadhya

पूरी तरह याद बनी हुई है; तथा इस आदर्श हिन्दू समाज के सूक्ष्माति-सूक्ष्म जाति-भेद के विरुद्ध एक विद्रोह का भाव आज भी मेरे मन से नहीं जाता। सम्भव है, यह जाति-भेद का सिद्धान्त बहुत ही अच्छा हो; जब कि इसी उपाय से सनातन हिन्दू जाति आज तक बची हुई है, तब इसकी प्रचण्ड उपकारिता के सम्बन्ध संशय करने के लिए या प्रश्न करने के लिए और कुछ शेष नहीं रहता। कहीं कोई

Sarat Chandra Chattopadhya

पोंछकर आई थी, लेकिन उनका रुंधा गला छिपा न रह

Sarat Chandra Chattopadhya

बर्छे से बेधकर मारा जाने वाला नाग बार-बार बर्छे को ही डसता है और थक कर उसी की ओर देखता रह जाता है

Sarat Chandra Chattopadhya

भाटे के खिंचाव में पानी जैसे पल-पल अपने क्षय के चिह्नों को तट प्रदेश में अंकित करके धीरे- धीरे दूर होता चला जाता है

Sarat Chandra Chattopadhya

ललिता ज्योंही पास आकर बैठी त्योंही गुरुचरण उसके सिर पर हाथ रखकर कह उठे-अपने गरीब दुखिया मामा के घर आकर तुझे दिन-रात मेहनत करनी पड़ती है, क्यों न वेटी? ललिता ने सिर हिलाकर कहा- दिन-रात मेहनत क्यों करनी पडती है मामा? सभी काम करते हैं, मैं भी करती हूँ।- अबकी गुरुचरण हँसे। उन्होंने चाय पीते-पीते कहा-हां ललिता, तो फिर आज रसोई वगैरह का क्या इंतजाम होगा? ललिता ने मामा की ओर देखकर कहा- क्यों मामा, मैं रसोई बनाऊँगी। गुरुचरण ने विस्मय प्रकट करते हुए कहा- तू क्या करेगी बेटी, तू क्या रसोई बनाना जानती है?

Sarat Chandra Chattopadhya

शान्त, मौन पृथ्वी के अन्तःस्थल में कैसी आग धधकती है

Sarat Chandra Chattopadhya

स्त्री जाति लज्जा और संकोच की मूर्ति है, इस प्रकार की बातों को वह कभी दूसरों पर नहीं प्रकट करती। नारी की छाती फटकर टुकड़े-टुकड़े क्यों न हो जाए, पर उसकी जुबान नहीं हिलती।

Sarat Chandra Chattopadhya

हृदय में घृणा भर जाने पर मनुष्य मनचाहा काम करने का अधिकारी होता है।

Sarat Chandra Chattopadhya

me to be happy, would never give me away to a thoughtless, restless, devil-driven creature like you! Now let me go!.

Sarat Chandra Chattopadhya